धर्मं क्या हैं, यह केवल व्यक्ति को उसका कर्तव्य मार्ग दिखाने का bu रास्ता मात्र हैं, यहीं बात श्रीमद भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने हजारो साल पहले कहीं थी, जाति या वर्ण व्यवस्था केवल व्यक्ति के कर्म के अनुसार थी, कोई भी व्यक्ति की जाति उसके कर्म के अनुसार तय की जाती थी, परन्तु अब क्या हो रहा हैं यह हम सब देख ही रहे हैं, जाति और धर्म के नाम में राजनीति और दंगे फसाद किए जाते हैं और इनमें हजारो लोग हर साल अपनी जान गवा देते हैं।
कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के पीछे पुराणों और ग्रंथो को ही दोषी ठहराया देते हैं, जबकि सच्चाई यह नहीं हैं, किसी भी धर्म के ग्रन्थ कभी भी समाज को गलत दिशा नहीं देते, बल्कि समाज ही उनकी गलत परिभाषा निकाल लेते हैं। जिसका परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ता हैं।
भारत के सविधान में सभी धर्मो को बराबर का दर्ज़ा दिया हैं, परन्तु धर्म और जाति की राजनीति देश के आज़ाद होते ही शुरू हो गई थी और अब भी वैसा ही सिस्टम चला आ रहा हैं, आपको किसी न किसी धर्मं और जाति में होना ही पड़ेगा, किसी भी आवेदन का फार्म में आपको इसका विवरण देना होगा, अगर सभी समान हैं तो इसकी आवश्यकता ही क्या हैं?
कितना धर्मनिरपेक्ष है हमारा देश, यह एक छोटा सा प्रसंग बता देगा, जिसमें नई पीढ़ी को यह अहसास करवा दिया जाता हैं कि आपकी समाज (लोगो की सोच में) में कहां जगह हैं?
,,
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें